वैभव लक्ष्मी व्रत
सुख, शांति, वैभव और लक्ष्मी प्राप्ति के लिए अद्भुत
चमत्कारी प्राचीन व्रत ‘वैभव लक्ष्मी व्रत’ करने के नियम:
1. यह व्रत सौभाग्यशाली स्त्रियां करें तो उनका अति उत्तम फल
मिलता है, पर घर में यदि सौभाग्यशाली स्त्रियां न हों तो कोई भी स्त्री एवं
कुमारिका भी यह व्रत कर सकती है।
2. स्त्री के
बदले पुरुष भी यह व्रत करें तो उसे भी उत्तम फल अवश्य मिलता है।
3. यह व्रत
पूरी श्रद्धा और पवित्र भाव से करना चाहिए। खिन्न होकर या बिना भाव से यह
व्रत नहीं करना चाहिए।
4. यह व्रत
शुक्रवार को किया जाता है। व्रत शुरु करते वक्त 11 या 21 शुक्रवार
की मन्नत रखनी पड़ती है और बताई गई शास्त्रीय विधि अनुसार ही व्रत करना
चाहिए। मन्नत के शुक्रवार पूरे होने पर विधिपूर्वक और बताई गई शास्त्रीय
रीति के अनुसार उद्यापन करना चाहिए। यह विधि सरल है। किन्तु शास्त्रीय
विधि अनुसार व्रत न करने पर व्रत का जरा भी फल नहीं मिलता है।
5. एक बार
व्रत पूरा करने के पश्चात फिर मन्नत कर सकते हैं और फिर से व्रत कर सकते
हैं।
6. माता
लक्ष्मी देवी के अनेक स्वरूप हैं। उनमें उनका ‘धनलक्ष्मी’ स्वरूप ही ‘वैभवलक्ष्मी’ है और माता
लक्ष्मी को श्री यंत्र अति
प्रिय है।
व्रत करते समय माता लक्ष्मी के विविध स्वरूप यथा
श्री धनलक्ष्मी
श्री गजलक्ष्मी,
श्री अधिलक्ष्मी,
श्री विजयलक्ष्मी,
श्री ऐश्वर्यलक्ष्मी,
श्री वीरलक्ष्मी,
श्री धान्यलक्ष्मी
एवं
श्री संतानलक्ष्मी तथा
श्री यंत्र
को प्रणाम करना चाहिए।
7. व्रत के
दिन सुबह से ही ‘जय माँ लक्ष्मी’, ‘जय माँ लक्ष्मी’ का रटन मन ही मन करना चाहिए और माँ का पूरे भाव से स्मरण करना चाहिए।
8. शुक्रवार
के दिन यदि आप प्रवास या यात्रा पर गये हों तो वह शुक्रवार छोड़कर
उनके बाद के शुक्रवार को व्रत करना चाहिए अर्थात् व्रत अपने ही घर में करना
चाहिए। कुल मिलाकर जितने शुक्रवार की मन्नत ली हो, उतने
शुक्रवार पूरे करने चाहिए।
9. घर में
सोना न हो तो चाँदी की चीज पूजा में रखनी चाहिए। अगर वह भी न हो तो रोकड़ा रुपया रखना चाहिए।
10. व्रत पूरा
होने पर कम से कम सात स्त्रियों को या आपकी इच्छा अनुसार जैसे 11, 21, 51 या 101 स्त्रियों को वैभवलक्ष्मी व्रत की पुस्तक कुमकुम का तिलक करके
भेंट के रूप में देनी चाहिए। जितनी ज्यादा पुस्तक आप देंगे उतनी माँ
लक्ष्मी की ज्यादा कृपा होगी और माँ लक्ष्मी जी के इस अद्भुत व्रत का ज्यादा प्रचार होगा।
11. व्रत के
शुक्रवार को स्त्री रजस्वला हो या सूतकी हो तो वह शुक्रवार छोड़ देना
चाहिए और बाद के शुक्रवार से व्रत शुरु करना चाहिए। पर जितने शुक्रवार
की मन्नत मानी हो, उतने शुक्रवार पूरे करने चाहिए।
12. व्रत की
विधि शुरु करते वक्त ‘लक्ष्मी स्तवन’ का एक बार पाठ करना चाहिए।
लक्ष्मी स्तवन इस प्रकार
है :-
या रक्ताम्बुजवासिनी
विलसिनी चण्डांशु तेजस्विनीं।
या रक्ता रुधिराम्बरा
हरिसखी या श्री मनोल्हादिनी।।
या रत्नाकरमन्थनात्प्रगटितां
विष्णोस्वया गेहिनी।
सा मां पातु मनोरमा भगवती
लक्ष्मीश्च पद्मावती।।
अर्थात् –
जो लाल कमल में रहती है, जो अपूर्व कांतिवाली हैं, जो असह्य तेजवाली हैं, जो पूर्णरूप से लाल हैं, जिसने रक्तरूप वस्त्र
पहने हैं, जे भगवान विष्णु को अतिप्रिय हैं, जो लक्ष्मी मन को आनन्द
देती हैं, जो समुद्रमंथन से प्रकट हुई है, जो विष्णु भगवान की
पत्नी हैं, जो कमल से जन्मी हैं और जो अतिशय
पूज्य है, वैसी हे लक्ष्मी देवी! आप मेरी रक्षा करें।
~*~
13. व्रत के दिन हो सके तो उपवास करना चाहिए और शाम को व्रत की
विधि करके माँ का प्रसाद लेकर व्रत करना चाहिए। अगर न हो सके तो फलाहार
या एक बार भोजन कर के शुक्रवार का व्रत रखना चाहिए। अगर व्रतधारी का
शरीर बहुत कमजोर हो तो ही दो बार भोजन ले सकते हैं। सबसे महत्व की बात यही है
कि व्रतधारी माँ लक्ष्मी जी पर पूरी-पूरी श्रद्धा और भावना रखे और ‘मेरी
मनोकामना माँ पूरी करेंगी ही’, ऐसा दृढ़ विश्वास रखकर व्रत करे।
वैभवलक्ष्मी व्रत की कथा :
एक बड़ा शहर था। इस शहर में लाखों लोग रहते थे। पहले के जमाने के
लोग साथ-साथ रहते थे अैर एक दूसरे के काम आते थे। पर नये जमाने के
लोगों का स्वरूप ही अलग सा है। सब अपने अपने काम में रत रहते हैं। किसी को
किसी की परवाह नहीं। घर के सदस्यों को भी एक-दूसरे की परवाह नहीं होती है ।
भजन-कीर्तन, भक्ति-भाव, दया-माया, परोपकार जैसे संस्कार कम
हो गये हैं । शहर में बुराइयाँ बढ़ गई थीं। शराब, जुआ, रेस, व्यभिचार, चोरी-डकैती आदि बहुत से अपराध शहर में होते थे। कहावत है कि ‘हजारों निराशा में एक
अमर आशा छिपी हुई है’ इसी तरह इतनी सारी बुराइयों के बावजूद शहर
में कुछ अच्छे लोग भी रहते थे। ऐसे अच्छे लोगों में शीला और उनके पति की
गृहस्थी मानी जाती थी। शीला धार्मिक प्रकृति की और संतोषी थी। उनका पति भी
विवेकी और सुशील था। शीला और उनका पति ईमानदारी से जीते थे। वे किसी की
बुराई न करते थे और प्रभु भजन में अच्छी तरह समय व्यतीत कर रहे थे। उनकी
गृहस्थी आदर्श गृहस्थी थी और शहर के लोग उनकी गृहस्थी की सराहना करते
थे। शीला की गृहस्थी इसी तरह खुशी-खुशी चल रही थी।
पर कहा जाता है कि ‘कर्म की गति अटल है’, विधाता के लिखे लेख कोई नहीं समझ सकता है। इन्सान का
नसीब पल भर में राजा को रंक बना देता है और रंक को राजा। शीला के पति के
अगले जन्म के कर्म भोगने बाकी रह गये होंगे कि वह बुरे लोगों से दोस्ती कर
बैठा। वह जल्द से जल्द करोड़पति होने के ख्वाब देखने लगा। इसलिए वह गलत
रास्ते पर चल निकला और करोड़पति के बजाय रोड़पति बन गया। याने
रास्ते पर भटकते भिखारी जैसी उसकी स्थिति हो गयी थी। शहर में शराब, जुआ, रेस, चरस-गांजा आदि बदियां
फैली हुई थीं। उसमें शीला का पति भी फँस गया। दोस्तों के साथ
उसे भी शराब की आदत हो गई। जल्द से जल्द पैसे वाला बनने की लालच
में दोस्तों के साथ रेस जुआ भी खेलने लगा। इस तरह बचाई हुई धनराशि, पत्नी के गहने, सब कुछ रेस-जुए में गँवा
दिया था। समय के परिवर्तन के साथ घर में दरिद्रता और भुखमरी फैल गई। सुख से
खाने के बजाय दो वक्त के भोजन के लाले पड़ गये और शीला को पति की
गालियाँ खाने का वक्त आ गया था। शीला सुशील और संस्कारी स्त्री थी। उसको पति के बर्ताव से बहुत दुख हुआ। किन्तु वह भगवान पर
भरोसा करके बड़ा दिल रख कर दुख सहने लगी। कहा जाता है कि ‘सुख के पीछे दुख और दुख
के पीछे सुख आता ही है। इसलिए दुख के बाद सुख आयेगा ही, ऐसी श्रद्धा के साथ शीला
प्रभु भक्ति में लीन रहने लगी। इस तरह शीला असह्य
दुख सहते-सहते प्रभुभक्ति में वक्त बिताने लगी।
अचानक एक दिन दोपहर में
उनके द्वार पर किसी ने दस्तक दी। शीला सोच में पड़ गयी कि मुझ जैसे गरीब के
घर इस वक्त कौन आया होगा? फिर भी द्वार पर आये हुए अतिथि का आदर करना चाहिए, ऐसे आर्य धर्म के
संस्कार वाली शीला ने खड़े होकर द्वार खोला। देखा तो एक माँ
जी खड़ी थी। वे बड़ी उम्र की लगती थीं। किन्तु उनके चेहरे पर
अलौकिक तेज निखर रहा था। उनकी आँखों में से मानो अमृत बह रहा था। उनका भव्य
चेहरा करुणा और प्यार से छलकता था। उनको देखते ही शीला के मन में अपार
शांति छा गई। वैसे शीला इस माँ जी को पहचानती न थी, फिर भी उनको देखकर शीला
के रोम-रोम में आनन्द छा गया। शीला माँ जी को आदर के साथ घर में ले आयी।
घर में बिठाने के लिए कुछ भी नहीं था। अतः शीला ने सकुचा कर एक फटी हुई चादर
पर उनको बिठाया। माँ जी ने कहा: ‘क्यों शीला! मुझे पहचाना
नहीं?’
शीला ने सकुचा कर कहा: ‘माँ! आपको देखते ही बहुत खुशी हो
रही है। बहुत शांति हो रही है। ऐसा लगता है कि मैं बहुत दिनों से
जिसे ढूढ़ रही थी वे आप ही हैं, पर मैं आपको पहचान नहीं
सकती।’
माँ जी ने हँसकर कहा: ‘क्यों? भूल गई? हर शुक्रवार को लक्ष्मी
जी के मंदिर में भजन-कीर्तन होते हैं, तब मैं भी वहाँ आती हूँ।
वहाँ हर शुक्रवार को हम मिलते हैं।’ पति गलत रास्ते पर चढ़
गया,
तब से शीला बहुत दुखी हो गई थी और दुख की मारी वह लक्ष्मीजी के मंदिर
में भी नहीं जाती थी। बाहर के लोगों के साथ नजर मिलाते भी उसे शर्म लगती
थी। उसने याददाश्त पर जोर दिया पर वह माँ जी याद नहीं आ रही थीं। तभी माँ जी ने कहा: ‘तू लक्ष्मी जी के मंदिर
में कितने मधुर भजन गाती थी। अभी-अभी तू दिखाई नहीं देती थी, इसलिए मुझे हुआ कि तू
क्यों नहीं आती है? कहीं बीमार तो नहीं हो गई है न? ऐसा सोचकर मैं तुझसे
मिलने चली आई हूँ।’ माँ जी के अति प्रेम भरे शब्दों से शीला का हृदय पिघल
गया। उसकी आँखों में आँसू आ गये। माँ जी के सामने वह
बिलख-बिलख कर रोने लगी।
यह देख कर माँ जी शीला के नजदीक आयीं और उसकी सिसकती पीठ पर प्यार भरा हाथ फेर कर सांत्वना देने लगीं। माँ जी ने कहा: ‘बेटी! सुख और दुख तो धूप
छांव जैसे होते हैं। धैर्य रखो बेटी! और तुझे परेशानी क्या है? तेरे दुख की बात मुझे
सुना। तेरा मन हलका हो जायेगा और तेरे दुख का कोई
उपाय भी मिल जायेगा।’ माँ जी की बात सुनकर शीला के मन को शांति मिली। उसने
माँ जी से कहा: ‘माँ! मेरी गृहस्थी में भरपूर सुख और
खुशियाँ थीं, मेरे पति भी सुशील थे। अचानक हमारा भाग्य हमसे रूठ
गया। मेरे पति बुरी संगति में फँस गये और बुरी आदतों के शिकार हो गये तथा
अपना सब-कुछ गवाँ बैठे हैं तथा हम रास्ते के भिखारी जैसे बन गये हैं।’
यह सुन कर माँ जी ने कहा: ‘ऐसा कहा जाता है कि , ‘कर्म की गति न्यारी होती है’, हर इंसान को अपने कर्म
भुगतने ही पड़ते हैं। इसलिए तू चिंता मत कर। अब तू कर्म भुगत चुकी है।
अब तुम्हारे सुख के दिन अवश्य आयेंगे। तू तो माँ लक्ष्मी जी की भक्त है। माँ
लक्ष्मी जी तो प्रेम और करुणा की अवतार हैं। वे अपने भक्तों पर हमेशा
ममता रखती हैं। इसलिए तू धैर्य रख कर माँ लक्ष्मी जी का व्रत कर। इससे सब कुछ
ठीक हो जायेगा। ‘माँ लक्ष्मी जी का व्रत’ करने की बात सुनकर शीला
के चेहरे पर चमक आ गई। उसने पूछा: ‘माँ! लक्ष्मी जी का व्रत
कैसे किया जाता है, वह मुझे समझाइये। मैं यह व्रत अवश्य
करूँगी।’
माँ जी ने कहा: ‘बेटी! माँ लक्ष्मी जी का व्रत
बहुत सरल है। उसे ‘वरदलक्ष्मी व्रत’ या ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ भी कहा जाता है। यह व्रत
करने वाले की सब मनोकामना पूर्ण होती है। वह सुख-सम्पत्ति
और यश प्राप्त करता है।
ऐसा कहकर माँ जी ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की विधि कहने लगी, ‘बेटी! वैभवलक्ष्मी व्रत
वैसे तो सीधा-सादा व्रत है। किन्तु कई लोग यह व्रत गलत तरीके से करते हैं, अतः उसका फल नहीं मिलता।
कई लोग कहते हैं कि सोने के गहने की हलदी-कुमकुम से पूजा
करो बस व्रत हो गया। पर ऐसा नहीं है। कोई भी व्रत शास्त्रीय विधि
से करना चाहिए। तभी उसका फल मिलता है। सच्ची बात यह है कि सोने के गहनों का
विधि से पूजन करना चाहिए। व्रत की उद्यापन विधि भी शास्त्रीय विधि से करना
चाहिए। यह व्रत शुक्रवार को करना चाहिए। प्रातःकाल स्नान करके स्वच्छ
कपड़े पहनो और सारा दिन ‘जय माँ लक्ष्मी’ का रटन करते रहो। किसी की चुगली नहीं करनी चाहिए। शाम को पूर्व
दिशा में मुँह करके आसन पर बैठ जाओ। सामने पाटा रखकर उस पर रुमाल रखो। रुमाल
पर चावल का छोटा सा ढेर करो। उस ढेर पर पानी से भरा तांबे का कलश रख कर, कलश पर एक कटोरी रखो। उस कटोरी में एक सोने का गहना रखो। सोने का न हो तो
चांदी का भी चलेगा। चांदी का न हो तो नकद रुपया भी चलेगा। बाद में घी का
दीपक जला कर अगरबत्ती सुलगा कर रखो। माँ लक्ष्मी जी के बहुत
स्वरूप हैं। और माँ लक्ष्मी जी को ‘श्रीयंत्र’ अति प्रिय है। अतः ‘वैभवलक्ष्मी’ में पूजन विधि करते वक्त
सर्वप्रथम ‘श्रीयंत्र’ और लक्ष्मी जी के विधि स्वरूपों
का सच्चे दिल से दर्शन करो। उसके बाद ‘लक्ष्मी स्तवन’ का पाठ करो। बाद में
कटोरी में रखे हुए गहने या रुपये को हल्दी-कुमकुम
और चावल चढ़ाकर पूजा करो और लाल रंग का फूल चढ़ाओ। शाम को कोई मीठी चीज बना
कर उसका प्रसाद रखो। न हो सके तो शक्कर या गुड़ भी चल सकता है। फिर आरती
करके ग्यारह बार सच्चे हृदय से ‘जय माँ लक्ष्मी’ बोलो। बाद में ग्यारह या
इक्कीस शुक्रवार यह व्रत करने का दृढ़ संकल्प माँ के सामने करो और आपकी जो
मनोकामना हो वह पूरी करने को माँ लक्ष्मी जी से विनती करो। फिर माँ का
प्रसाद बाँट दो। और थोड़ा प्रसाद अपने लिए रख लो। अगर आप में शक्ति हो तो
सारा दिन उपवास रखो और सिर्फ प्रसाद खा कर शुक्रवार का व्रत करो। न शक्ति हो
तो एक बार शाम को प्रसाद ग्रहण करते समय खाना खा लो। अगर थोड़ी शक्ति भी
न हो तो दो बार भोजन कर सकते हैं। बाद में कटोरी में रखा गहना या रुपया
ले लो। कलश का पानी तुलसी की क्यारी में डाल दो और चावल पक्षियों को डाल
दो। इसी तरह शास्त्रीय विधि से व्रत करने से उसका फल अवश्य मिलता है। इस व्रत
के प्रभाव से सब प्रकार की विपत्ति दूर हो कर आदमी मालामाल हो जाता हैं
संतान न हो तो संतान प्राप्ति होती है। सौभाग्वती स्त्री का सौभाग्य अखण्ड
रहता है। कुमारी लड़की को मनभावन पति मिलता है।
शीला यह सुनकर आनन्दित हो गई। फिर पूछा: ‘माँ! आपने वैभवलक्ष्मी
व्रत की जो शास्त्रीय विधि बताई है, वैसे मैं अवश्य करूंगी। किन्तु
उसकी उद्यापन विधि किस तरह करनी चाहिए? यह भी कृपा करके
सुनाइये।’ माँ जी ने कहा: ‘ग्यारह या इक्कीस जो मन्नत मानी हो उतने शुक्रवार यह वैभवलक्ष्मी व्रत पूरी
श्रद्धा और भावना से करना चाहिए। व्रत के आखिरी शुक्रवार को खीर का
नैवेद्य रखो। पूजन विधि हर शुक्रवार को करते हैं वैसे ही करनी चाहिए। पूजन
विधि के बाद श्रीफल फोड़ो और कम से कम सात कुंवारी या सौभाग्यशाली स्त्रियों
को कुमकुम का तिलक करके ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की एक-एक पुस्तक उपहार में देनी
चाहिए और सब को खीर का प्रसाद देना चाहिए। फिर धनलक्ष्मी स्वरूप, वैभवलक्ष्मी स्वरूप, माँ लक्ष्मी जी की छवि
को प्रणाम करें। माँ लक्ष्मी जी का यह स्वरूप वैभव देने वाला है। प्रणाम करके
मन ही मन भावुकता से माँ की प्रार्थना करते वक्त कहें कि , ‘हे माँ धनलक्ष्मी! हे माँ वैभवलक्ष्मी! मैंने
सच्चे हृदय से आपका व्रत पूर्ण किया है। तो हे माँ! हमारी मनोकामना
पूर्ण कीजिए। हमारा सबका कल्याण कीजिए। जिसे संतान न हो उसे संतान देना।
सौभाग्यशाली स्त्री का सौभाग्य अखण्ड रखना। कुंवारी लड़की को मनभावन पति
देना। आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत जो करे उसकी सब विपत्ति दूर करना। सब
को सुखी करना। हे माँ! आपकी महिमा अपरम्पार है।’ माँ जी के पास से
वैभवलक्ष्मी व्रत की शास्त्रीय विधि सुनकर शीला भावविभोर हो उठी। उसे लगा मानो
सुख का रास्ता मिल गया। उसने आँखें बंद करके मन ही मन उसी क्षण संकल्प लिया कि, ‘हे वैभवलक्ष्मी माँ! मैं
भी माँ जी के कहे अनुसार श्रद्धापूर्वक शास्त्रीय विधि से वैभवलक्ष्मी व्रत इक्कीस
शुक्रवार तक करूँगी और व्रत की शास्त्रीय रीति के अनुसार उद्यापन भी करूँगी। शीला ने संकल्प करके
आँखें खोली तो सामने कोई न था। वह विस्मित हो गई कि माँ जी कहां गयी? यह माँ जी कोई दूसरा
नहीं साक्षात् लक्ष्मी जी ही थीं। शीला लक्ष्मी जी की भक्त
थी इसलिए अपने भक्त को रास्ता दिखाने के लिए माँ लक्ष्मी देवी माँ जी का
स्वरूप धारण करके शीला के पास आई थीं।
दूसरे दिन शुक्रवार था। प्रातःकाल स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहन कर शीला
मन ही मन श्रद्धा और पूरे भाव से ‘जय माँ लक्ष्मी’ का मन ही मन रटन करने
लगी। सारा दिन किसी की चुगली नहीं की। शाम हुई तब हाथ-पांव-मुंह धो कर
शीला पूर्व दिशा में मुंह करके बैठी। घर में पहले तो सोने के बहुत से
गहने थे पर पति ने गलत रास्ते पर चलकर सब गिरवी रख दिये। पर नाक की कील
(पुल्ली) बच गई थी। नाक की कील निकाल कर, उसे धोकर शीला ने कटोरी
में रख दी। सामने पाटे पर रुमाल रख कर मुठ्ठी भर चावल
का ढेर किया। उस पर तांबे का कलश पानी भरकर रखा। उसके ऊपर कील वाली
कटोरी रखी। फिर विधिपूर्वक वंदन, स्तवन, पूजन वगैरह किया और घर में
थोड़ी शक्कर थी, वह प्रसाद में रख कर वैभवलक्ष्मी व्रत किया। यह प्रसाद पहले पति को
खिलाया। प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क पड़ गया। उस दिन उसने शीला
को मारा नहीं, सताया भी नहीं। शीला को बहुत आनन्द हुआ। उसके मन में
वैभवलक्ष्मी व्रत के लिए श्रद्ध बढ़ गई। शीला ने पूर्ण
श्रद्धा-भक्ति से इक्कीस शुक्रवार तक व्रत किया। इक्कीसवें शुक्रवार को विधिपूर्वक
उद्यापन विधि करके सात स्त्रियों को वैभवलक्ष्मी व्रत की सात पुस्तकें
उपहार में दीं। फिर माता जी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छवि को वंदन करके भाव से
मन ही मन प्रार्थना करने लगी: ‘हे माँ धनलक्ष्मी! मैंने आपका वैभवलक्ष्मी
व्रत करने की मन्नत मानी थी वह व्रत आज पूर्ण किया है। हे माँ! मेरी हर
विपत्ति दूर करो। हमारा सबका कल्याण करो। जिसे संतान न हो, उसे संतान देना।
सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखण्ड रखना। कुंवारी लड़की को मनभावन पति
देना। जो कोई आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे, उसकी सब विपत्ति दूर
करना। सब को सुखी करना। हे माँ! आपकी महिमा अपार है।’ ऐसा बोलकर लक्ष्मीजी के
धनलक्ष्मी स्वरूप की छवि को प्रणाम किया। इस तरह शास्त्रीय विधि
से शीला ने श्रद्धा से व्रत किया और तुरन्त ही उसे फल मिला। उसका पति सही
रास्ते पर चलने लगा और अच्छा आदमी बन गया तथा कड़ी मेहनत से व्यवसाय करने
लगा। धीरे धीरे समय परिवर्तित हुआ और उसने शीला के गिरवी रखे गहने छुड़ा
लिए। घर में धन की बाढ़ सी आ गई। घर में पहले जैसी सुख-शांति छा गई।
वैभवलक्ष्मी व्रत का प्रभाव देखकर मोहल्ले की दूसरी स्त्रियाँ भी
शास्त्रीय विधि से वैभवलक्ष्मी का व्रत करने लगीं। हे माँ धनलक्ष्मी! आप जैसे
शीला पर प्रसन्न हुईं, उसी तरह आपका व्रत करने वाले सब
पर प्रसन्न होना। सबको सुख-शांति देना। जय धनलक्ष्मी
माँ! जय वैभवलक्ष्मी माँ!
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श्री लक्ष्मी जी की आरती
ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता
तुम को निश दिन सेवत, हर विष्णु विधाता....
ॐ जय लक्ष्मी माता...।।
उमा रमा ब्रह्माणी, तुम ही जग माता
सूर्य चंद्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता
ॐ जय लक्ष्मी माता...।।
दुर्गा रूप निरंजनि, सुख सम्पति दाता
जो कोई तुमको ध्याता, ऋद्धि सिद्धि धन पाता
ॐ जय लक्ष्मी माता...।।
तुम पाताल निवासिनी, तुम ही शुभ दाता
कर्म प्रभाव प्रकाशिनी, भव निधि की त्राता
ॐ जय लक्ष्मी माता...।।
जिस घर तुम रहती सब सद्गुण आता
सब संभव हो जाता,
मन
नहीं घबराता
ॐ जय लक्ष्मी माता...।।
तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न कोई पाता
खान पान का वैभव,
सब
तुमसे आता
ॐ जय लक्ष्मी माता...।।
शुभ गुण मंदिर सुंदर, क्षीरोदधि जाता
रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहीं पाता
ॐ जय लक्ष्मी माता...।।
महालक्ष्मीजी की आरती, जो कोई नर गाता
उर आनंद समाता,
पाप
उतर जाता
ॐ जय लक्ष्मी माता...।।
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मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास।
मनोकामना सिद्घ करि, परुवहु मेरी आस॥
मनोकामना सिद्घ करि, परुवहु मेरी आस॥
॥ सोरठा॥
यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करुं।
सब विधि करौ सुवास, जय जननि जगदंबिका॥
सब विधि करौ सुवास, जय जननि जगदंबिका॥
॥ चौपाई ॥
सिन्धु सुता मैं सुमिरौ तोही। ज्ञान बुद्घि विघा दो मोही ॥
तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरवहु आस हमारी॥
जय जय जगत जननि जगदम्बा। सबकी तुम ही हो अवलम्बा॥
तुम ही हो सब घट घट वासी। विनती यही हमारी खासी॥
जगजननी जय सिन्धु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥
विनवौं नित्य तुमहिं महारानी। कृपा करौ जग जननि भवानी॥
केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥
कृपा दृष्टि चितववो मम ओरी। जगजननी विनती सुन मोरी॥
ज्ञान बुद्घि जय सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता॥
क्षीर सिन्धु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिन्धु में पायो॥
चौदह रत्न में तुम सुखरासी। सेवा कियो प्रभु बनि दासी॥
जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा। रुप बदल तहं सेवा कीन्हा॥
स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥
तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥
अपनाया तोहि अन्तर्यामी। विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी॥
तुम सम प्रबल शक्ति नहीं आनी। कहं लौ महिमा कहौं बखानी॥
मन क्रम वचन करै सेवकाई। मन इच्छित वांछित फल पाई॥
तजि छल कपट और चतुराई। पूजहिं विविध भांति मनलाई॥
और हाल मैं कहौं बुझाई। जो यह पाठ करै मन लाई॥
ताको कोई कष्ट नोई। मन इच्छित पावै फल सोई॥
त्राहि त्राहि जय दुःख निवारिणि। त्रिविध ताप भव बंधन हारिणी॥
जो चालीसा पढ़ै पढ़ावै। ध्यान लगाकर सुनै सुनावै॥
ताकौ कोई न रोग सतावै। पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै॥
पुत्रहीन अरु संपति हीना। अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना॥
विप्र बोलाय कै पाठ करावै। शंका दिल में कभी न लावै॥
पाठ करावै दिन चालीसा। ता पर कृपा करैं गौरीसा॥
सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै। कमी नहीं काहू की आवै॥
बारह मास करै जो पूजा। तेहि सम धन्य और नहिं दूजा॥
प्रतिदिन पाठ करै मन माही। उन सम कोइ जग में कहुं नाहीं॥
बहुविधि क्या मैं करौं बड़ाई। लेय परीक्षा ध्यान लगाई॥
करि विश्वास करै व्रत नेमा। होय सिद्घ उपजै उर प्रेमा॥
जय जय जय लक्ष्मी भवानी। सब में व्यापित हो गुण खानी॥
तुम्हरो तेज प्रबल जग माहीं। तुम सम कोउ दयालु कहुं नाहिं॥
मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै। संकट काटि भक्ति मोहि दीजै॥
भूल चूक करि क्षमा हमारी। दर्शन दजै दशा निहारी॥
बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी। तुमहि अछत दुःख सहते भारी॥
नहिं मोहिं ज्ञान बुद्घि है तन में। सब जानत हो अपने मन में॥
रुप चतुर्भुज करके धारण। कष्ट मोर अब करहु निवारण॥
केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। ज्ञान बुद्घि मोहि नहिं अधिकाई॥
तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरवहु आस हमारी॥
जय जय जगत जननि जगदम्बा। सबकी तुम ही हो अवलम्बा॥
तुम ही हो सब घट घट वासी। विनती यही हमारी खासी॥
जगजननी जय सिन्धु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥
विनवौं नित्य तुमहिं महारानी। कृपा करौ जग जननि भवानी॥
केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥
कृपा दृष्टि चितववो मम ओरी। जगजननी विनती सुन मोरी॥
ज्ञान बुद्घि जय सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता॥
क्षीर सिन्धु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिन्धु में पायो॥
चौदह रत्न में तुम सुखरासी। सेवा कियो प्रभु बनि दासी॥
जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा। रुप बदल तहं सेवा कीन्हा॥
स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥
तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥
अपनाया तोहि अन्तर्यामी। विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी॥
तुम सम प्रबल शक्ति नहीं आनी। कहं लौ महिमा कहौं बखानी॥
मन क्रम वचन करै सेवकाई। मन इच्छित वांछित फल पाई॥
तजि छल कपट और चतुराई। पूजहिं विविध भांति मनलाई॥
और हाल मैं कहौं बुझाई। जो यह पाठ करै मन लाई॥
ताको कोई कष्ट नोई। मन इच्छित पावै फल सोई॥
त्राहि त्राहि जय दुःख निवारिणि। त्रिविध ताप भव बंधन हारिणी॥
जो चालीसा पढ़ै पढ़ावै। ध्यान लगाकर सुनै सुनावै॥
ताकौ कोई न रोग सतावै। पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै॥
पुत्रहीन अरु संपति हीना। अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना॥
विप्र बोलाय कै पाठ करावै। शंका दिल में कभी न लावै॥
पाठ करावै दिन चालीसा। ता पर कृपा करैं गौरीसा॥
सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै। कमी नहीं काहू की आवै॥
बारह मास करै जो पूजा। तेहि सम धन्य और नहिं दूजा॥
प्रतिदिन पाठ करै मन माही। उन सम कोइ जग में कहुं नाहीं॥
बहुविधि क्या मैं करौं बड़ाई। लेय परीक्षा ध्यान लगाई॥
करि विश्वास करै व्रत नेमा। होय सिद्घ उपजै उर प्रेमा॥
जय जय जय लक्ष्मी भवानी। सब में व्यापित हो गुण खानी॥
तुम्हरो तेज प्रबल जग माहीं। तुम सम कोउ दयालु कहुं नाहिं॥
मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै। संकट काटि भक्ति मोहि दीजै॥
भूल चूक करि क्षमा हमारी। दर्शन दजै दशा निहारी॥
बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी। तुमहि अछत दुःख सहते भारी॥
नहिं मोहिं ज्ञान बुद्घि है तन में। सब जानत हो अपने मन में॥
रुप चतुर्भुज करके धारण। कष्ट मोर अब करहु निवारण॥
केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। ज्ञान बुद्घि मोहि नहिं अधिकाई॥
॥ दोहा॥
त्राहि त्राहि दुख हारिणी, हरो वेगि सब त्रास।
जयति जयति जय लक्ष्मी, करो शत्रु को नाश॥
रामदास धरि ध्यान नित, विनय करत कर जोर।
मातु लक्ष्मी दास पर, करहु दया की कोर॥
जयति जयति जय लक्ष्मी, करो शत्रु को नाश॥
रामदास धरि ध्यान नित, विनय करत कर जोर।
मातु लक्ष्मी दास पर, करहु दया की कोर॥
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