4. जया एकादशी
(माघ कृष्ण
एकादशी)
धर्मराज युधिष्ठिर बोले - हे
भगवन्! आपने माघ
के कृष्ण पक्ष
की षटतिला एकादशी
का अत्यन्त सुंदर
वर्णन किया। आप
स्वदेज, अंडज, उद्भिज और
जरायुज चारों प्रकार के
जीवों के उत्पन्न,
पालन तथा नाश
करने वाले हैं।
अब आप कृपा
करके माघ शुक्ल
एकादशी का वर्णन
कीजिए। इसका क्या
नाम है, इसके
व्रत की क्या
विधि है और
इसमें कौन से
देवता का पूजन
किया जाता है?
श्रीकृष्ण कहने लगे
कि हे राजन्!
इस एकादशी का
नाम 'जया एकादशी'
है। इसका व्रत
करने से मनुष्य
ब्रह्म हत्यादि पापों से
छूट कर मोक्ष
को प्राप्त होता
है तथा इसके
प्रभाव से भूत,
पिशाच आदि योनियों
से मुक्त हो
जाता है। इस
व्रत को विधिपूर्वक
करना चाहिए। अब
मैं तुमसे पद्मपुराण
में वर्णित इसकी
महिमा की एक
कथा सुनाता हूँ।
जया एकादशी व्रत कथा:
देवराज इंद्र स्वर्ग में
राज करते थे
और अन्य सब
देवगण सुखपूर्वक स्वर्ग
में रहते थे।
एक समय इंद्र
अपनी इच्छानुसार नंदन
वन में अप्सराओं
के साथ विहार
कर रहे थे
और गंधर्व गान
कर रहे थे।
उन गंधर्वों में
प्रसिद्ध पुष्पदंत तथा उसकी
कन्या पुष्पवती और
चित्रसेन तथा उसकी
स्त्री मालिनी भी उपस्थित
थे। साथ ही
मालिनी का पुत्र
पुष्पवान और उसका
पुत्र माल्यवान भी
उपस्थित थे।
पुष्पवती गंधर्व कन्या माल्यवान
को देखकर उस
पर मोहित हो
गई और माल्यवान
पर काम-बाण
चलाने लगी। उसने
अपने रूप लावण्य
और हावभाव से
माल्यवान को वश
में कर लिया।
हे राजन्! वह
पुष्पवती अत्यन्त सुंदर थी।
अब वे इंद्र
को प्रसन्न करने
के लिए गान
करने लगे परंतु
परस्पर मोहित हो जाने
के कारण उनका
चित्त भ्रमित हो
गया था।
इनके ठीक प्रकार
न गाने तथा
स्वर ताल ठीक
नहीं होने से
इंद्र इनके प्रेम
को समझ गया
और उन्होंने इसमें
अपना अपमान समझ
कर उनको शाप
दे दिया। इंद्र
ने कहा हे
मूर्खों ! तुमने मेरी आज्ञा
का उल्लंघन किया
है, इसलिए तुम्हारा
धिक्कार है। अब
तुम दोनों स्त्री-पुरुष के रूप
में मृत्यु लोक
में जाकर पिशाच
रूप धारण करो
और अपने कर्म
का फल भोगो।
इंद्र का ऐसा
शाप सुनकर वे
अत्यन्त दु:खी
हुए और हिमालय
पर्वत पर दु:खपूर्वक अपना जीवन
व्यतीत करने लगे।
उन्हें गंध, रस
तथा स्पर्श आदि
का कुछ भी
ज्ञान नहीं था।
वहाँ उनको महान
दु:ख मिल
रहे थे। उन्हें
एक क्षण के
लिए भी निद्रा
नहीं आती थी।
उस जगह अत्यन्त
शीत था, इससे
उनके रोंगटे खड़े
रहते और मारे
शीत के दाँत
बजते रहते। एक
दिन पिशाच ने
अपनी स्त्री से
कहा कि पिछले
जन्म में हमने
ऐसे कौन-से
पाप किए थे,
जिससे हमको यह
दु:खदायी पिशाच
योनि प्राप्त हुई।
इस पिशाच योनि
से तो नर्क
के दु:ख
सहना ही उत्तम
है। अत: हमें
अब किसी प्रकार
का पाप नहीं
करना चाहिए। इस
प्रकार विचार करते हुए
वे अपने दिन
व्यतीत कर रहे
थे।
दैव्ययोग से तभी
माघ मास में
शुक्ल पक्ष की
जया नामक एकादशी
आई। उस दिन
उन्होंने कुछ भी
भोजन नहीं किया
और न कोई
पाप कर्म ही
किया। केवल फल-फूल खाकर
ही दिन व्यतीत
किया और सायंकाल
के समय महान
दु:ख से
पीपल के वृक्ष
के नीचे बैठ
गए। उस समय
सूर्य भगवान अस्त
हो रहे थे।
उस रात को
अत्यन्त ठंड थी,
इस कारण वे
दोनों शीत के
मारे अति दुखित
होकर मृतक के
समान आपस में
चिपटे हुए पड़े
रहे। उस रात्रि
को उनको निद्रा
भी नहीं आई।
हे राजन् ! जया एकादशी
के उपवास और
रात्रि के जागरण
से दूसरे दिन
प्रभात होते ही
उनकी पिशाच योनि
छूट गई। अत्यन्त
सुंदर गंधर्व और
अप्सरा की देह
धारण कर सुंदर
वस्त्राभूषणों से अलंकृत
होकर उन्होंने स्वर्गलोक
को प्रस्थान किया।
उस समय आकाश
में देवता उनकी
स्तुति करते हुए
पुष्पवर्षा करने लगे।
स्वर्गलोक में जाकर
इन दोनों ने
देवराज इंद्र को प्रणाम
किया। इंद्र इनको
पहले रूप में
देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित
हुआ और पूछने
लगा कि तुमने
अपनी पिशाच योनि
से किस तरह
छुटकारा पाया, सो सब
बतालाओ।
माल्यवान बोले कि
हे देवेन्द्र ! भगवान
विष्णु की कृपा
और जया एकादशी
के व्रत के
प्रभाव से ही
हमारी पिशाच देह
छूटी है। तब
इंद्र बोले कि
हे माल्यवान! भगवान
की कृपा और
एकादशी का व्रत
करने से न
केवल तुम्हारी पिशाच
योनि छूट गई,
वरन् हम लोगों
के भी वंदनीय
हो गए क्योंकि
विष्णु और शिव
के भक्त हम
लोगों के वंदनीय
हैं, अत: आप
धन्य है। अब
आप पुष्पवती के
साथ जाकर विहार
करो।
श्रीकृष्ण कहने लगे
कि हे राजा
युधिष्ठिर ! इस जया
एकादशी के व्रत
से बुरी योनि
छूट जाती है।
जिस मनुष्य ने
इस एकादशी का
व्रत किया है
उसने मानो सब
यज्ञ, जप, दान
आदि कर लिए।
जो मनुष्य जया
एकादशी का व्रत
करते हैं वे
अवश्य ही हजार
वर्ष तक स्वर्ग
में वास करते
हैं।
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एकादशी की पावन आरती
ऊँ जय एकादशी, जय एकादशी, जय एकादशी माता ।
विष्णु पूजा व्रत को धारण कर, शक्ति मुक्ति पाता ।।
ऊँ जय एकादशी…।।
तेरे नाम गिनाऊँ देवी, भक्ति प्रदान करनी ।
गण गौरव की देनी माता, शास्त्रों में वरनी ।।
ऊँ जय एकादशी…।।
मार्गशीर्ष के कृ्ष्णपक्ष में "उत्पन्ना" होती
।
शुक्ल पक्ष में "मोक्षदायिनी", पापों को धोती ।।
ऊँ जय एकादशी…।।
पौष के कृ्ष्णपक्ष की, "सफला" नाम कहैं।
शुक्लपक्ष में होय "पुत्रदा", आनन्द अधिक लहैं ।।
ऊँ जय एकादशी…।।
नाम "षटतिला" माघ मास में, कृष्णपक्ष आवै।
शुक्लपक्ष में "जया" कहावै, विजय सदा पावै ।।
ऊँ जय एकादशी…।।
"विजया" फागुन कृ्ष्णपक्ष में शुक्ला "आमलकी" ।
"पापमोचनी" कृ्ष्ण पक्ष में, चैत्र मास बल की ।।
ऊँ जय एकादशी…।।
चैत्र शुक्ल में नाम "कामदा" धन देने वाली ।
नाम "बरुथिनी" कृ्ष्णपक्ष में, वैसाख माह वाली ।।
ऊँ जय एकादशी…।।
शुक्ल पक्ष में होये"मोहिनी", "अपरा" ज्येष्ठ कृ्ष्णपक्षी ।
नाम"निर्जला" सब सुख करनी, शुक्लपक्ष रखी ।।
ऊँ जय एकादशी…।।
"योगिनी" नाम आषाढ में जानों, कृ्ष्णपक्ष करनी ।
"देवशयनी" नाम कहायो, शुक्लपक्ष धरनी ।।
ऊँ जय एकादशी…।।
"कामिका" श्रावण मास में आवै, कृष्णपक्ष कहिए।
श्रावण शुक्ला होय "पवित्रा", आनन्द से रहिए।।
ऊँ जय एकादशी…।।
"अजा" भाद्रपद कृ्ष्णपक्ष की, "परिवर्तिनी" शुक्ला।
"इन्द्रा" आश्चिन कृ्ष्णपक्ष में, व्रत से भवसागर निकला।।
ऊँ जय एकादशी…।।
"पापांकुशा" है शुक्ल पक्ष में, आप हरनहारी ।
"रमा" मास कार्तिक में आवै, सुखदायक भारी ।।
ऊँ जय एकादशी…।।
"देवोत्थानी" शुक्लपक्ष की, दु:खनाशक मैया।
लौंद मास में करूँ विनती पार करो नैया ।।
ऊँ जय एकादशी…।।
"परमा" कृ्ष्णपक्ष में होती, जन मंगल करनी।।
शुक्ल लौंद में होय "पद्मिनी", दु:ख दारिद्र हरनी ।।
ऊँ जय एकादशी…।।
जो कोई आरती एकाद्शी की, भक्ति सहित गावै ।
जन "गुरदिता" स्वर्ग का वासा, निश्चय वह पावै।।
ऊँ जय एकादशी, जय एकादशी, जय एकादशी माता ।
विष्णु पूजा व्रत को धारण कर, शक्ति मुक्ति पाता ।।
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