असटपदी : १९ - २१
(१९)
सलोकु ॥
साथि न चालै बिनु भजन बिखिआ सगली छारु ॥
हरि हरि नामु कमावना नानक इहु धनु सारु ॥१॥
असटपदी ॥
संत जना मिलि करहु बीचारु ॥
एकु सिमरि नाम आधारु ॥
अवरि उपाव सभि मीत बिसारहु ॥
चरन कमल रिद महि उरि धारहु ॥
करन कारन सो प्रभु समरथु ॥
द्रिड़ु करि गहहु नामु हरि वथु ॥
इहु धनु संचहु होवहु भगवंत ॥
संत जना का निरमल मंत ॥
एक आस राखहु मन माहि ॥
सरब रोग नानक मिटि जाहि ॥१॥
जिसु धन कउ चारि कुंट उठि धावहि ॥
सो धनु हरि सेवा ते पावहि ॥
जिसु सुख कउ नित बाछहि मीत ॥
सो सुखु साधू संगि परीति ॥
जिसु सोभा कउ करहि भली करनी ॥
सा सोभा भजु हरि की सरनी ॥
अनिक उपावी रोगु न जाइ ॥
रोगु मिटै हरि अवखधु लाइ ॥
सरब निधान महि हरि नामु निधानु ॥
जपि नानक दरगहि परवानु ॥२॥
मनु परबोधहु हरि कै नाइ ॥
दह दिसि धावत आवै ठाइ ॥
ता कउ बिघनु न लागै कोइ ॥
जा कै रिदै बसै हरि सोइ ॥
कलि ताती ठांढा हरि नाउ ॥
सिमरि सिमरि सदा सुख पाउ ॥
भउ बिनसै पूरन होइ आस ॥
भगति भाइ आतम परगास ॥
तितु घरि जाइ बसै अबिनासी ॥
कहु नानक काटी जम फासी ॥३॥
ततु बीचारु कहै जनु साचा ॥
जनमि मरै सो काचो काचा ॥
आवा गवनु मिटै प्रभ सेव ॥
आपु तिआगि सरनि गुरदेव ॥
इउ रतन जनम का होइ उधारु ॥
हरि हरि सिमरि प्रान आधारु ॥
अनिक उपाव न छूटनहारे ॥
सिम्रिति सासत बेद बीचारे ॥
हरि की भगति करहु मनु लाइ ॥
मनि बंछत नानक फल पाइ ॥४॥
संगि न चालसि तेरै धना ॥
तूं किआ लपटावहि मूरख मना ॥
सुत मीत कुट्मब अरु बनिता ॥
इन ते कहहु तुम कवन सनाथा ॥
राज रंग माइआ बिसथार ॥
इन ते कहहु कवन छुटकार ॥
असु हसती रथ असवारी ॥
झूठा ड्मफु झूठु पासारी ॥
जिनि दीए तिसु बुझै न बिगाना ॥
नामु बिसारि नानक पछुताना ॥५॥
गुर की मति तूं लेहि इआने ॥
भगति बिना बहु डूबे सिआने ॥
हरि की भगति करहु मन मीत ॥
निरमल होइ तुम्हारो चीत ॥
चरन कमल राखहु मन माहि ॥
जनम जनम के किलबिख जाहि ॥
आपि जपहु अवरा नामु जपावहु ॥
सुनत कहत रहत गति पावहु ॥
सार भूत सति हरि को नाउ ॥
सहजि सुभाइ नानक गुन गाउ ॥६॥
गुन गावत तेरी उतरसि मैलु ॥
बिनसि जाइ हउमै बिखु फैलु ॥
होहि अचिंतु बसै सुख नालि ॥
सासि ग्रासि हरि नामु समालि ॥
छाडि सिआनप सगली मना ॥
साधसंगि पावहि सचु धना ॥
हरि पूंजी संचि करहु बिउहारु ॥
ईहा सुखु दरगह जैकारु ॥
सरब निरंतरि एको देखु ॥
कहु नानक जा कै मसतकि लेखु ॥७॥
एको जपि एको सालाहि ॥
एकु सिमरि एको मन आहि ॥
एकस के गुन गाउ अनंत ॥
मनि तनि जापि एक भगवंत ॥
एको एकु एकु हरि आपि ॥
पूरन पूरि रहिओ प्रभु बिआपि ॥
अनिक बिसथार एक ते भए ॥
एकु अराधि पराछत गए ॥
मन तन अंतरि एकु प्रभु राता ॥
गुर प्रसादि नानक इकु जाता ॥८॥१९॥
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(२०)
सलोकु ॥
फिरत फिरत प्रभ आइआ परिआ तउ सरनाइ ॥
नानक की प्रभ बेनती अपनी भगती लाइ ॥१॥
असटपदी ॥
जाचक जनु जाचै प्रभ दानु ॥
करि किरपा देवहु हरि नामु ॥
साध जना की मागउ धूरि ॥
पारब्रहम मेरी सरधा पूरि ॥
सदा सदा प्रभ के गुन गावउ ॥
सासि सासि प्रभ तुमहि धिआवउ ॥
चरन कमल सिउ लागै प्रीति ॥
भगति करउ प्रभ की नित नीति ॥
एक ओट एको आधारु ॥
नानकु मागै नामु प्रभ सारु ॥१॥
प्रभ की द्रिसटि महा सुखु होइ ॥
हरि रसु पावै बिरला कोइ ॥
जिन चाखिआ से जन त्रिपताने ॥
पूरन पुरख नही डोलाने ॥
सुभर भरे प्रेम रस रंगि ॥
उपजै चाउ साध कै संगि ॥
परे सरनि आन सभ तिआगि ॥
अंतरि प्रगास अनदिनु लिव लागि ॥
बडभागी जपिआ प्रभु सोइ ॥
नानक नामि रते सुखु होइ ॥२॥
सेवक की मनसा पूरी भई ॥
सतिगुर ते निरमल मति लई ॥
जन कउ प्रभु होइओ दइआलु ॥
सेवकु कीनो सदा निहालु ॥
बंधन काटि मुकति जनु भइआ ॥
जनम मरन दूखु भ्रमु गइआ ॥
इछ पुनी सरधा सभ पूरी ॥
रवि रहिआ सद संगि हजूरी ॥
जिस का सा तिनि लीआ मिलाइ ॥
नानक भगती नामि समाइ ॥३॥
सो किउ बिसरै जि घाल न भानै ॥
सो किउ बिसरै जि कीआ जानै ॥
सो किउ बिसरै जिनि सभु किछु दीआ ॥
सो किउ बिसरै जि जीवन जीआ ॥
सो किउ बिसरै जि अगनि महि राखै ॥
गुर प्रसादि को बिरला लाखै ॥
सो किउ बिसरै जि बिखु ते काढै ॥
जनम जनम का टूटा गाढै ॥
गुरि पूरै ततु इहै बुझाइआ ॥
प्रभु अपना नानक जन धिआइआ ॥४॥
साजन संत करहु इहु कामु ॥
आन तिआगि जपहु हरि नामु ॥
सिमरि सिमरि सिमरि सुख पावहु ॥
आपि जपहु अवरह नामु जपावहु ॥
भगति भाइ तरीऐ संसारु ॥
बिनु भगती तनु होसी छारु ॥
सरब कलिआण सूख निधि नामु ॥
बूडत जात पाए बिस्रामु ॥
सगल दूख का होवत नासु ॥
नानक नामु जपहु गुनतासु ॥५॥
उपजी प्रीति प्रेम रसु चाउ ॥
मन तन अंतरि इही सुआउ ॥
नेत्रहु पेखि दरसु सुखु होइ ॥
मनु बिगसै साध चरन धोइ ॥
भगत जना कै मनि तनि रंगु ॥
बिरला कोऊ पावै संगु ॥
एक बसतु दीजै करि मइआ ॥
गुर प्रसादि नामु जपि लइआ ॥
ता की उपमा कही न जाइ ॥
नानक रहिआ सरब समाइ ॥६॥
प्रभ बखसंद दीन दइआल ॥
भगति वछल सदा किरपाल ॥
अनाथ नाथ गोबिंद गुपाल ॥
सरब घटा करत प्रतिपाल ॥
आदि पुरख कारण करतार ॥
भगत जना के प्रान अधार ॥
जो जो जपै सु होइ पुनीत ॥
भगति भाइ लावै मन हीत ॥
हम निरगुनीआर नीच अजान ॥
नानक तुमरी सरनि पुरख भगवान ॥७॥
सरब बैकुंठ मुकति मोख पाए ॥
एक निमख हरि के गुन गाए ॥
अनिक राज भोग बडिआई ॥
हरि के नाम की कथा मनि भाई ॥
बहु भोजन कापर संगीत ॥
रसना जपती हरि हरि नीत ॥
भली सु करनी सोभा धनवंत ॥
हिरदै बसे पूरन गुर मंत ॥
साधसंगि प्रभ देहु निवास ॥
सरब सूख नानक परगास ॥८॥२०॥
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(२१)
सलोकु ॥
सरगुन निरगुन निरंकार सुंन समाधी आपि ॥
आपन कीआ नानका आपे ही फिरि जापि ॥१॥
असटपदी ॥
जब अकारु इहु कछु न द्रिसटेता ॥
पाप पुंन तब कह ते होता ॥
जब धारी आपन सुंन समाधि ॥
तब बैर बिरोध किसु संगि कमाति ॥
जब इस का बरनु चिहनु न जापत ॥
तब हरख सोग कहु किसहि बिआपत ॥
जब आपन आप आपि पारब्रहम ॥
तब मोह कहा किसु होवत भरम ॥
आपन खेलु आपि वरतीजा ॥
नानक करनैहारु न दूजा ॥१॥
जब होवत प्रभ केवल धनी ॥
तब बंध मुकति कहु किस कउ गनी ॥
जब एकहि हरि अगम अपार ॥
तब नरक सुरग कहु कउन अउतार ॥
जब निरगुन प्रभ सहज सुभाइ ॥
तब सिव सकति कहहु कितु ठाइ ॥
जब आपहि आपि अपनी जोति धरै ॥
तब कवन निडरु कवन कत डरै ॥
आपन चलित आपि करनैहार ॥
नानक ठाकुर अगम अपार ॥२॥
अबिनासी सुख आपन आसन ॥
तह जनम मरन कहु कहा बिनासन ॥
जब पूरन करता प्रभु सोइ ॥
तब जम की त्रास कहहु किसु होइ ॥
जब अबिगत अगोचर प्रभ एका ॥
तब चित्र गुपत किसु पूछत लेखा ॥
जब नाथ निरंजन अगोचर अगाधे ॥
तब कउन छुटे कउन बंधन बाधे ॥
आपन आप आप ही अचरजा ॥
नानक आपन रूप आप ही उपरजा ॥३॥
जह निरमल पुरखु पुरख पति होता ॥
तह बिनु मैलु कहहु किआ धोता ॥
जह निरंजन निरंकार निरबान ॥
तह कउन कउ मान कउन अभिमान ॥
जह सरूप केवल जगदीस ॥
तह छल छिद्र लगत कहु कीस ॥
जह जोति सरूपी जोति संगि समावै ॥
तह किसहि भूख कवनु त्रिपतावै ॥
करन करावन करनैहारु ॥
नानक करते का नाहि सुमारु ॥४॥
जब अपनी सोभा आपन संगि बनाई ॥
तब कवन माइ बाप मित्र सुत भाई ॥
जह सरब कला आपहि परबीन ॥
तह बेद कतेब कहा कोऊ चीन ॥
जब आपन आपु आपि उरि धारै ॥
तउ सगन अपसगन कहा बीचारै ॥
जह आपन ऊच आपन आपि नेरा ॥
तह कउन ठाकुरु कउनु कहीऐ चेरा ॥
बिसमन बिसम रहे बिसमाद ॥
नानक अपनी गति जानहु आपि ॥५॥
जह अछल अछेद अभेद समाइआ ॥
ऊहा किसहि बिआपत माइआ ॥
आपस कउ आपहि आदेसु ॥
तिहु गुण का नाही परवेसु ॥
जह एकहि एक एक भगवंता ॥
तह कउनु अचिंतु किसु लागै चिंता ॥
जह आपन आपु आपि पतीआरा ॥
तह कउनु कथै कउनु सुननैहारा ॥
बहु बेअंत ऊच ते ऊचा ॥
नानक आपस कउ आपहि पहूचा ॥६॥
जह आपि रचिओ परपंचु अकारु ॥
तिहु गुण महि कीनो बिसथारु ॥
पापु पुंनु तह भई कहावत ॥
कोऊ नरक कोऊ सुरग बंछावत ॥
आल जाल माइआ जंजाल ॥
हउमै मोह भरम भै भार ॥
दूख सूख मान अपमान ॥
अनिक प्रकार कीओ बख्यान ॥
आपन खेलु आपि करि देखै ॥
खेलु संकोचै तउ नानक एकै ॥७॥
जह अबिगतु भगतु तह आपि ॥
जह पसरै पासारु संत परतापि ॥
दुहू पाख का आपहि धनी ॥
उन की सोभा उनहू बनी ॥
आपहि कउतक करै अनद चोज ॥
आपहि रस भोगन निरजोग ॥
जिसु भावै तिसु आपन नाइ लावै ॥
जिसु भावै तिसु खेल खिलावै ॥
बेसुमार अथाह अगनत अतोलै ॥
जिउ बुलावहु तिउ नानक दास बोलै ॥८॥२१॥
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