असटपदी : १६ - १८
(१६)
सलोकु ॥
रूपु न रेख न रंगु किछु त्रिहु गुण ते प्रभ भिंन ॥
तिसहि बुझाए नानका जिसु होवै सुप्रसंन ॥१॥
असटपदी ॥
अबिनासी प्रभु मन महि राखु ॥
मानुख की तू प्रीति तिआगु ॥
तिस ते परै नाही किछु कोइ ॥
सरब निरंतरि एको सोइ ॥
आपे बीना आपे दाना ॥
गहिर ग्मभीरु गहीरु सुजाना ॥
पारब्रहम परमेसुर गोबिंद ॥
क्रिपा निधान दइआल बखसंद ॥
साध तेरे की चरनी पाउ ॥
नानक कै मनि इहु अनराउ ॥१॥
मनसा पूरन सरना जोग ॥
जो करि पाइआ सोई होगु ॥
हरन भरन जा का नेत्र फोरु ॥
तिस का मंत्रु न जानै होरु ॥
अनद रूप मंगल सद जा कै ॥
सरब थोक सुनीअहि घरि ता कै ॥
राज महि राजु जोग महि जोगी ॥
तप महि तपीसरु ग्रिहसत महि भोगी ॥
धिआइ धिआइ भगतह सुखु पाइआ ॥
नानक तिसु पुरख का किनै अंतु न पाइआ ॥२॥
जा की लीला की मिति नाहि ॥
सगल देव हारे अवगाहि ॥
पिता का जनमु कि जानै पूतु ॥
सगल परोई अपुनै सूति ॥
सुमति गिआनु धिआनु जिन देइ ॥
जन दास नामु धिआवहि सेइ ॥
तिहु गुण महि जा कउ भरमाए ॥
जनमि मरै फिरि आवै जाए ॥
ऊच नीच तिस के असथान ॥
जैसा जनावै तैसा नानक जान ॥३॥
नाना रूप नाना जा के रंग ॥
नाना भेख करहि इक रंग ॥
नाना बिधि कीनो बिसथारु ॥
प्रभु अबिनासी एकंकारु ॥
नाना चलित करे खिन माहि ॥
पूरि रहिओ पूरनु सभ ठाइ ॥
नाना बिधि करि बनत बनाई ॥
अपनी कीमति आपे पाई ॥
सभ घट तिस के सभ तिस के ठाउ ॥
जपि जपि जीवै नानक हरि नाउ ॥४॥
नाम के धारे सगले जंत ॥
नाम के धारे खंड ब्रहमंड ॥
नाम के धारे सिम्रिति बेद पुरान ॥
नाम के धारे सुनन गिआन धिआन ॥
नाम के धारे आगास पाताल ॥
नाम के धारे सगल आकार ॥
नाम के धारे पुरीआ सभ भवन ॥
नाम कै संगि उधरे सुनि स्रवन ॥
करि किरपा जिसु आपनै नामि लाए ॥
नानक चउथे पद महि सो जनु गति पाए ॥५॥
रूपु सति जा का सति असथानु ॥
पुरखु सति केवल परधानु ॥
करतूति सति सति जा की बाणी ॥
सति पुरख सभ माहि समाणी ॥
सति करमु जा की रचना सति ॥
मूलु सति सति उतपति ॥
सति करणी निरमल निरमली ॥
जिसहि बुझाए तिसहि सभ भली ॥
ਸਤਿ ਨਾਮੁ ਪ੍ਰਭ ਕਾ ਸੁਖਦਾਈ ॥
सति नामु प्रभ का सुखदाई ॥
बिस्वासु सति नानक गुर ते पाई ॥६॥
सति बचन साधू उपदेस ॥
सति ते जन जा कै रिदै प्रवेस ॥
सति निरति बूझै जे कोइ ॥
नामु जपत ता की गति होइ ॥
आपि सति कीआ सभु सति ॥
आपे जानै अपनी मिति गति ॥
जिस की स्रिसटि सु करणैहारु ॥
अवर न बूझि करत बीचारु ॥
करते की मिति न जानै कीआ ॥
नानक जो तिसु भावै सो वरतीआ ॥७॥
बिसमन बिसम भए बिसमाद ॥
जिनि बूझिआ तिसु आइआ स्वाद ॥
प्रभ कै रंगि राचि जन रहे ॥
गुर कै बचनि पदारथ लहे ॥
ओइ दाते दुख काटनहार ॥
जा कै संगि तरै संसार ॥
जन का सेवकु सो वडभागी ॥
जन कै संगि एक लिव लागी ॥
गुन गोबिद कीरतनु जनु गावै ॥
गुर प्रसादि नानक फलु पावै ॥८॥१६॥
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(१७)
सलोकु ॥
आदि सचु जुगादि सचु ॥
आदि सचु जुगादि सचु ॥
है भि सचु नानक होसी भि सचु ॥१॥
असटपदी ॥
चरन सति सति परसनहार ॥
पूजा सति सति सेवदार ॥
दरसनु सति सति पेखनहार ॥
नामु सति सति धिआवनहार ॥
आपि सति सति सभ धारी ॥
आपे गुण आपे गुणकारी ॥
सबदु सति सति प्रभु बकता ॥
सुरति सति सति जसु सुनता ॥
बुझनहार कउ सति सभ होइ ॥
नानक सति सति प्रभु सोइ ॥१॥
सति सरूपु रिदै जिनि मानिआ ॥
करन करावन तिनि मूलु पछानिआ ॥
जा कै रिदै बिस्वासु प्रभ आइआ ॥
ततु गिआनु तिसु मनि प्रगटाइआ ॥
भै ते निरभउ होइ बसाना ॥
जिस ते उपजिआ तिसु माहि समाना ॥
बसतु माहि ले बसतु गडाई ॥
ता कउ भिंन न कहना जाई ॥
बूझै बूझनहारु बिबेक ॥
नाराइन मिले नानक एक ॥२॥
ठाकुर का सेवकु आगिआकारी ॥
ठाकुर का सेवकु सदा पूजारी ॥
ठाकुर के सेवक कै मनि परतीति ॥
ठाकुर के सेवक की निरमल रीति ॥
ठाकुर कउ सेवकु जानै संगि ॥
प्रभ का सेवकु नाम कै रंगि ॥
सेवक कउ प्रभ पालनहारा ॥
सेवक की राखै निरंकारा ॥
सो सेवकु जिसु दइआ प्रभु धारै ॥
नानक सो सेवकु सासि सासि समारै ॥३॥
अपुने जन का परदा ढाकै ॥
अपने सेवक की सरपर राखै ॥
अपने दास कउ देइ वडाई ॥
अपने सेवक कउ नामु जपाई ॥
अपने सेवक की आपि पति राखै ॥
ता की गति मिति कोइ न लाखै ॥
प्रभ के सेवक कउ को न पहूचै ॥
प्रभ के सेवक ऊच ते ऊचे ॥
जो प्रभि अपनी सेवा लाइआ ॥
नानक सो सेवकु दह दिसि प्रगटाइआ ॥४॥
नीकी कीरी महि कल राखै ॥
भसम करै लसकर कोटि लाखै ॥
जिस का सासु न काढत आपि ॥
ता कउ राखत दे करि हाथ ॥
मानस जतन करत बहु भाति ॥
तिस के करतब बिरथे जाति ॥
मारै न राखै अवरु न कोइ ॥
सरब जीआ का राखा सोइ ॥
काहे सोच करहि रे प्राणी ॥
जपि नानक प्रभ अलख विडाणी ॥५॥
बारं बार बार प्रभु जपीऐ ॥
पी अम्रितु इहु मनु तनु ध्रपीऐ ॥
नाम रतनु जिनि गुरमुखि पाइआ ॥
तिसु किछु अवरु नाही द्रिसटाइआ ॥
नामु धनु नामो रूपु रंगु ॥
नामो सुखु हरि नाम का संगु ॥
नाम रसि जो जन त्रिपताने ॥
मन तन नामहि नामि समाने ॥
ऊठत बैठत सोवत नाम ॥
कहु नानक जन कै सद काम ॥६॥
बोलहु जसु जिहबा दिनु राति ॥
प्रभि अपनै जन कीनी दाति ॥
करहि भगति आतम कै चाइ ॥
प्रभ अपने सिउ रहहि समाइ ॥
जो होआ होवत सो जानै ॥
प्रभ अपने का हुकमु पछानै ॥
तिस की महिमा कउन बखानउ ॥
तिस का गुनु कहि एक न जानउ ॥
आठ पहर प्रभ बसहि हजूरे ॥
कहु नानक सेई जन पूरे ॥७॥
मन मेरे तिन की ओट लेहि ॥
मनु तनु अपना तिन जन देहि ॥
जिनि जनि अपना प्रभू पछाता ॥
सो जनु सरब थोक का दाता ॥
तिस की सरनि सरब सुख पावहि ॥
तिस कै दरसि सभ पाप मिटावहि ॥
अवर सिआनप सगली छाडु ॥
तिसु जन की तू सेवा लागु ॥
आवनु जानु न होवी तेरा ॥
नानक तिसु जन के पूजहु सद पैरा ॥८॥१७॥
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(१८)
सलोकु ॥
सति पुरखु जिनि जानिआ सतिगुरु तिस का नाउ ॥
तिस कै संगि सिखु उधरै नानक हरि गुन गाउ ॥१॥
असटपदी ॥
सतिगुरु सिख की करै प्रतिपाल ॥
सेवक कउ गुरु सदा दइआल ॥
सिख की गुरु दुरमति मलु हिरै ॥
गुर बचनी हरि नामु उचरै ॥
सतिगुरु सिख के बंधन काटै ॥
गुर का सिखु बिकार ते हाटै ॥
सतिगुरु सिख कउ नाम धनु देइ ॥
गुर का सिखु वडभागी हे ॥
सतिगुरु सिख का हलतु पलतु सवारै ॥
नानक सतिगुरु सिख कउ जीअ नालि समारै ॥१॥
गुर कै ग्रिहि सेवकु जो रहै ॥
गुर की आगिआ मन महि सहै ॥
आपस कउ करि कछु न जनावै ॥
हरि हरि नामु रिदै सद धिआवै ॥
मनु बेचै सतिगुर कै पासि ॥
तिसु सेवक के कारज रासि ॥
सेवा करत होइ निहकामी ॥
तिस कउ होत परापति सुआमी ॥
अपनी क्रिपा जिसु आपि करेइ ॥
नानक सो सेवकु गुर की मति लेइ ॥२॥
बीस बिसवे गुर का मनु मानै ॥
सो सेवकु परमेसुर की गति जानै ॥
सो सतिगुरु जिसु रिदै हरि नाउ ॥
अनिक बार गुर कउ बलि जाउ ॥
सरब निधान जीअ का दाता ॥
आठ पहर पारब्रहम रंगि राता ॥
ब्रहम महि जनु जन महि पारब्रहमु ॥
एकहि आपि नही कछु भरमु ॥
सहस सिआनप लइआ न जाईऐ ॥
नानक ऐसा गुरु बडभागी पाईऐ ॥३॥
सफल दरसनु पेखत पुनीत ॥
भेटत संगि राम गुन रवे ॥
पारब्रहम की दरगह गवे ॥
सुनि करि बचन करन आघाने ॥
मनि संतोखु आतम पतीआने ॥
पूरा गुरु अख्यओ जा का मंत्र ॥
अम्रित द्रिसटि पेखै होइ संत ॥
गुण बिअंत कीमति नही पाइ ॥
नानक जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥४॥
जिहबा एक उसतति अनेक ॥
सति पुरख पूरन बिबेक ॥
काहू बोल न पहुचत प्रानी ॥
अगम अगोचर प्रभ निरबानी ॥
निराहार निरवैर सुखदाई ॥
ता की कीमति किनै न पाई ॥
अनिक भगत बंदन नित करहि ॥
चरन कमल हिरदै सिमरहि ॥
सद बलिहारी सतिगुर अपने ॥
नानक जिसु प्रसादि ऐसा प्रभु जपने ॥५॥
इहु हरि रसु पावै जनु कोइ ॥
अम्रितु पीवै अमरु सो होइ ॥
उसु पुरख का नाही कदे बिनास ॥
जा कै मनि प्रगटे गुनतास ॥
आठ पहर हरि का नामु लेइ ॥
सचु उपदेसु सेवक कउ देइ ॥
मोह माइआ कै संगि न लेपु ॥
मन महि राखै हरि हरि एकु ॥
अंधकार दीपक परगासे ॥
नानक भरम मोह दुख तह ते नासे ॥६॥
तपति माहि ठाढि वरताई ॥
अनदु भइआ दुख नाठे भाई ॥
जनम मरन के मिटे अंदेसे ॥
साधू के पूरन उपदेसे ॥
भउ चूका निरभउ होइ बसे ॥
सगल बिआधि मन ते खै नसे ॥
जिस का सा तिनि किरपा धारी ॥
साधसंगि जपि नामु मुरारी ॥
थिति पाई चूके भ्रम गवन ॥
सुनि नानक हरि हरि जसु स्रवन ॥७॥
निरगुनु आपि सरगुनु भी ओही ॥
कला धारि जिनि सगली मोही ॥
अपने चरित प्रभि आपि बनाए ॥
अपुनी कीमति आपे पाए ॥
हरि बिनु दूजा नाही कोइ ॥
सरब निरंतरि एको सोइ ॥
ओति पोति रविआ रूप रंग ॥
भए प्रगास साध कै संग ॥
रचि रचना अपनी कल धारी ॥
अनिक बार नानक बलिहारी ॥८॥१८॥
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