असटपदी : १३ - १५
(१३)
सलोकु ॥
संत सरनि जो जनु परै सो जनु उधरनहार ॥
संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार ॥१॥
असटपदी ॥
संत कै दूखनि आरजा घटै ॥
संत कै दूखनि जम ते नही छुटै ॥
संत कै दूखनि सुखु सभु जाइ ॥
संत कै दूखनि नरक महि पाइ ॥
संत कै दूखनि मति होइ मलीन ॥
संत कै दूखनि सोभा ते हीन ॥
संत के हते कउ रखै न कोइ ॥
संत कै दूखनि थान भ्रसटु होइ ॥
संत क्रिपाल क्रिपा जे करै ॥
नानक संतसंगि निंदकु भी तरै ॥१॥
संत के दूखन ते मुखु भवै ॥
संतन कै दूखनि काग जिउ लवै ॥
संतन कै दूखनि सरप जोनि पाइ ॥
संत कै दूखनि त्रिगद जोनि किरमाइ ॥
संतन कै दूखनि त्रिसना महि जलै ॥
संत कै दूखनि सभु को छलै ॥
संत कै दूखनि तेजु सभु जाइ ॥
संत कै दूखनि नीचु नीचाइ ॥
संत दोखी का थाउ को नाहि ॥
नानक संत भावै ता ओइ भी गति पाहि ॥२॥
संत का निंदकु महा अतताई ॥
संत का निंदकु खिनु टिकनु न पाई ॥
संत का निंदकु महा हतिआरा ॥
संत का निंदकु परमेसुरि मारा ॥
संत का निंदकु राज ते हीनु ॥
संत का निंदकु दुखीआ अरु दीनु ॥
संत के निंदक कउ सरब रोग ॥
संत के निंदक कउ सदा बिजोग ॥
संत की निंदा दोख महि दोखु ॥
नानक संत भावै ता उस का भी होइ मोखु ॥३॥
संत का दोखी सदा अपवितु ॥
संत का दोखी किसै का नही मितु ॥
संत के दोखी कउ डानु लागै ॥
संत के दोखी कउ सभ तिआगै ॥
संत का दोखी महा अहंकारी ॥
संत का दोखी सदा बिकारी ॥
संत का दोखी जनमै मरै ॥
संत की दूखना सुख ते टरै ॥
संत के दोखी कउ नाही ठाउ ॥
नानक संत भावै ता लए मिलाइ ॥४॥
संत का दोखी अध बीच ते टूटै ॥
संत का दोखी कितै काजि न पहूचै ॥
संत के दोखी कउ उदिआन भ्रमाईऐ ॥
संत का दोखी उझड़ि पाईऐ ॥
संत का दोखी अंतर ते थोथा ॥
जिउ सास बिना मिरतक की लोथा ॥
संत के दोखी की जड़ किछु नाहि ॥
आपन बीजि आपे ही खाहि ॥
संत के दोखी कउ अवरु न राखनहारु ॥
नानक संत भावै ता लए उबारि ॥५॥
संत का दोखी इउ बिललाइ ॥
जिउ जल बिहून मछुली तड़फड़ाइ ॥
संत का दोखी भूखा नही राजै ॥
जिउ पावकु ईधनि नही ध्रापै ॥
संत का दोखी छुटै इकेला ॥
जिउ बूआड़ु तिलु खेत माहि दुहेला ॥
संत का दोखी धरम ते रहत ॥
संत का दोखी सद मिथिआ कहत ॥
किरतु निंदक का धुरि ही पइआ ॥
नानक जो तिसु भावै सोई थिआ ॥६॥
संत का दोखी बिगड़ रूपु होइ जाइ ॥
संत के दोखी कउ दरगह मिलै सजाइ ॥
संत का दोखी सदा सहकाईऐ ॥
संत का दोखी न मरै न जीवाईऐ ॥
संत के दोखी की पुजै न आसा ॥
संत का दोखी उठि चलै निरासा ॥
संत कै दोखि न त्रिसटै कोइ ॥
जैसा भावै तैसा कोई होइ ॥
पइआ किरतु न मेटै कोइ ॥
नानक जानै सचा सोइ ॥७॥
सभ घट तिस के ओहु करनैहारु ॥
सदा सदा तिस कउ नमसकारु ॥
प्रभ की उसतति करहु दिनु राति ॥
तिसहि धिआवहु सासि गिरासि ॥
सभु कछु वरतै तिस का कीआ ॥
जैसा करे तैसा को थीआ ॥
अपना खेलु आपि करनैहारु ॥
दूसर कउनु कहै बीचारु ॥
जिस नो क्रिपा करै तिसु आपन नामु देइ ॥
बडभागी नानक जन सेइ ॥८॥१३॥
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(१४)
सलोकु ॥
तजहु सिआनप सुरि जनहु सिमरहु हरि हरि राइ ॥
एक आस हरि मनि रखहु नानक दूखु भरमु भउ जाइ ॥१॥
असटपदी ॥
तजहु सिआनप सुरि जनहु सिमरहु हरि हरि राइ ॥
देवन कउ एकै भगवानु ॥
जिस कै दीऐ रहै अघाइ ॥
बहुरि न त्रिसना लागै आइ ॥
मारै राखै एको आपि ॥
मानुख कै किछु नाही हाथि ॥
तिस का हुकमु बूझि सुखु होइ ॥
तिस का नामु रखु कंठि परोइ ॥
सिमरि सिमरि सिमरि प्रभु सोइ ॥
नानक बिघनु न लागै कोइ ॥१॥
उसतति मन महि करि निरंकार ॥
करि मन मेरे सति बिउहार ॥
निरमल रसना अम्रितु पीउ ॥
सदा सुहेला करि लेहि जीउ ॥
नैनहु पेखु ठाकुर का रंगु ॥
साधसंगि बिनसै सभ संगु ॥
चरन चलउ मारगि गोबिंद ॥
मिटहि पाप जपीऐ हरि बिंद ॥
कर हरि करम स्रवनि हरि कथा ॥
हरि दरगह नानक ऊजल मथा ॥२॥
बडभागी ते जन जग माहि ॥
सदा सदा हरि के गुन गाहि ॥
राम नाम जो करहि बीचार ॥
से धनवंत गनी संसार ॥
मनि तनि मुखि बोलहि हरि मुखी ॥
सदा सदा जानहु ते सुखी ॥
एको एकु एकु पछानै ॥
इत उत की ओहु सोझी जानै ॥
नाम संगि जिस का मनु मानिआ ॥
नानक तिनहि निरंजनु जानिआ ॥३॥
गुर प्रसादि आपन आपु सुझै ॥
तिस की जानहु त्रिसना बुझै ॥
साधसंगि हरि हरि जसु कहत ॥
सरब रोग ते ओहु हरि जनु रहत ॥
अनदिनु कीरतनु केवल बख्यानु ॥
ग्रिहसत महि सोई निरबानु ॥
एक ऊपरि जिसु जन की आसा ॥
तिस की कटीऐ जम की फासा ॥
पारब्रहम की जिसु मनि भूख ॥
नानक तिसहि न लागहि दूख ॥४॥
जिस कउ हरि प्रभु मनि चिति आवै ॥
सो संतु सुहेला नही डुलावै ॥
जिसु प्रभु अपुना किरपा करै ॥
सो सेवकु कहु किस ते डरै ॥
जैसा सा तैसा द्रिसटाइआ ॥
अपुने कारज महि आपि समाइआ ॥
सोधत सोधत सोधत सीझिआ ॥
गुर प्रसादि ततु सभु बूझिआ ॥
जब देखउ तब सभु किछु मूलु ॥
नानक सो सूखमु सोई असथूलु ॥५॥
नह किछु जनमै नह किछु मरै ॥
आपन चलितु आप ही करै ॥
आवनु जावनु द्रिसटि अनद्रिसटि ॥
आगिआकारी धारी सभ स्रिसटि ॥
आपे आपि सगल महि आपि ॥
अनिक जुगति रचि थापि उथापि ॥
अबिनासी नाही किछु खंड ॥
धारण धारि रहिओ ब्रहमंड ॥
अलख अभेव पुरख परताप ॥
आपि जपाए त नानक जाप ॥६॥
जिन प्रभु जाता सु सोभावंत ॥
सगल संसारु उधरै तिन मंत ॥
प्रभ के सेवक सगल उधारन ॥
प्रभ के सेवक दूख बिसारन ॥
आपे मेलि लए किरपाल ॥
गुर का सबदु जपि भए निहाल ॥
उन की सेवा सोई लागै ॥
जिस नो क्रिपा करहि बडभागै ॥
नामु जपत पावहि बिस्रामु ॥
नानक तिन पुरख कउ ऊतम करि मानु ॥७॥
जो किछु करै सु प्रभ कै रंगि ॥
सदा सदा बसै हरि संगि ॥
सहज सुभाइ होवै सो होइ ॥
करणैहारु पछाणै सोइ ॥
प्रभ का कीआ जन मीठ लगाना ॥
जैसा सा तैसा द्रिसटाना ॥
जिस ते उपजे तिसु माहि समाए ॥
ओइ सुख निधान उनहू बनि आए ॥
आपस कउ आपि दीनो मानु ॥
नानक प्रभ जनु एको जानु ॥८॥१४॥
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(१५)
सलोकु ॥
सरब कला भरपूर प्रभ बिरथा जाननहार ॥
जा कै सिमरनि उधरीऐ नानक तिसु बलिहार ॥१॥
असटपदी ॥
टूटी गाढनहार गोपाल ॥
सरब जीआ आपे प्रतिपाल ॥
सगल की चिंता जिसु मन माहि ॥
तिस ते बिरथा कोई नाहि ॥
रे मन मेरे सदा हरि जापि ॥
अबिनासी प्रभु आपे आपि ॥
आपन कीआ कछू न होइ ॥
जे सउ प्रानी लोचै कोइ ॥
तिसु बिनु नाही तेरै किछु काम ॥
गति नानक जपि एक हरि नाम ॥१॥
रूपवंतु होइ नाही मोहै ॥
प्रभ की जोति सगल घट सोहै ॥
धनवंता होइ किआ को गरबै ॥
जा सभु किछु तिस का दीआ दरबै ॥
अति सूरा जे कोऊ कहावै ॥
प्रभ की कला बिना कह धावै ॥
जे को होइ बहै दातारु ॥
तिसु देनहारु जानै गावारु ॥
जिसु गुर प्रसादि तूटै हउ रोगु ॥
नानक सो जनु सदा अरोगु ॥२॥
जिउ मंदर कउ थामै थमनु ॥
तिउ गुर का सबदु मनहि असथमनु ॥
जिउ पाखाणु नाव चड़ि तरै ॥
प्राणी गुर चरण लगतु निसतरै ॥
जिउ अंधकार दीपक परगासु ॥
गुर दरसनु देखि मनि होइ बिगासु ॥
जिउ महा उदिआन महि मारगु पावै ॥
तिउ साधू संगि मिलि जोति प्रगटावै ॥
तिन संतन की बाछउ धूरि ॥
नानक की हरि लोचा पूरि ॥३॥
मन मूरख काहे बिललाईऐ ॥
पुरब लिखे का लिखिआ पाईऐ ॥
दूख सूख प्रभ देवनहारु ॥
अवर तिआगि तू तिसहि चितारु ॥
जो कछु करै सोई सुखु मानु ॥
कउन बसतु आई तेरै संग ॥
लपटि रहिओ रसि लोभी पतंग ॥
राम नाम जपि हिरदे माहि ॥
नानक पति सेती घरि जाहि ॥४॥
जिसु वखर कउ लैनि तू आइआ ॥
राम नामु संतन घरि पाइआ ॥
तजि अभिमानु लेहु मन मोलि ॥
राम नामु हिरदे महि तोलि ॥
लादि खेप संतह संगि चालु ॥
अवर तिआगि बिखिआ जंजाल ॥
धंनि धंनि कहै सभु कोइ ॥
मुख ऊजल हरि दरगह सोइ ॥
इहु वापारु विरला वापारै ॥
नानक ता कै सद बलिहारै ॥५॥
चरन साध के धोइ धोइ पीउ ॥
अरपि साध कउ अपना जीउ ॥
साध की धूरि करहु इसनानु ॥
साध ऊपरि जाईऐ कुरबानु ॥
साध सेवा वडभागी पाईऐ ॥
साधसंगि हरि कीरतनु गाईऐ ॥
अनिक बिघन ते साधू राखै ॥
हरि गुन गाइ अम्रित रसु चाखै ॥
ओट गही संतह दरि आइआ ॥
सरब सूख नानक तिह पाइआ ॥६॥
मिरतक कउ जीवालनहार ॥
भूखे कउ देवत अधार ॥
सरब निधान जा की द्रिसटी माहि ॥
पुरब लिखे का लहणा पाहि ॥
सभु किछु तिस का ओहु करनै जोगु ॥
तिसु बिनु दूसर होआ न होगु ॥
जपि जन सदा सदा दिनु रैणी ॥
सभ ते ऊच निरमल इह करणी ॥
करि किरपा जिस कउ नामु दीआ ॥
नानक सो जनु निरमलु थीआ ॥७॥
जा कै मनि गुर की परतीति ॥
तिसु जन आवै हरि प्रभु चीति ॥
भगतु भगतु सुनीऐ तिहु लोइ ॥
जा कै हिरदै एको होइ ॥
सचु करणी सचु ता की रहत ॥
सचु हिरदै सति मुखि कहत ॥
साची द्रिसटि साचा आकारु ॥
सचु वरतै साचा पासारु ॥
पारब्रहमु जिनि सचु करि जाता ॥
नानक सो जनु सचि समाता ॥८॥१५॥
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