असटपदी : ४ - ६
(४)
सलोकु ॥
निरगुनीआर इआनिआ सो प्रभु सदा समालि ॥
जिनि कीआ तिसु चीति रखु नानक निबही नालि ॥१॥
असटपदी ॥
रमईआ के गुन चेति परानी ॥
कवन मूल ते कवन द्रिसटानी ॥
जिनि तूं साजि सवारि सीगारिआ ॥
गरभ अगनि महि जिनहि उबारिआ ॥
बार बिवसथा तुझहि पिआरै दूध ॥
भरि जोबन भोजन सुख सूध ॥
बिरधि भइआ ऊपरि साक सैन ॥
मुखि अपिआउ बैठ कउ दैन ॥
इहु निरगुनु गुनु कछू न बूझै ॥
बखसि लेहु तउ नानक सीझै ॥१॥
जिह प्रसादि धर ऊपरि सुखि बसहि ॥
सुत भ्रात मीत बनिता संगि हसहि ॥
जिह प्रसादि पीवहि सीतल जला ॥
सुखदाई पवनु पावकु अमुला ॥
जिह प्रसादि भोगहि सभि रसा ॥
सगल समग्री संगि साथि बसा ॥
दीने हसत पाव करन नेत्र रसना ॥
तिसहि तिआगि अवर संगि रचना ॥
ऐसे दोख मूड़ अंध बिआपे ॥
नानक काढि लेहु प्रभ आपे ॥२॥
आदि अंति जो राखनहारु ॥
तिस सिउ प्रीति न करै गवारु ॥
जा की सेवा नव निधि पावै ॥
ता सिउ मूड़ा मनु नही लावै ॥
जो ठाकुरु सद सदा हजूरे ॥
ता कउ अंधा जानत दूरे ॥
जा की टहल पावै दरगह मानु ॥
तिसहि बिसारै मुगधु अजानु ॥
सदा सदा इहु भूलनहारु ॥
नानक राखनहारु अपारु ॥३॥
रतनु तिआगि कउडी संगि रचै ॥
साचु छोडि झूठ संगि मचै ॥
जो छडना सु असथिरु करि मानै ॥
जो होवनु सो दूरि परानै ॥
छोडि जाइ तिस का स्रमु करै ॥
संगि सहाई तिसु परहरै ॥
चंदन लेपु उतारै धोइ ॥
गरधब प्रीति भसम संगि होइ ॥
अंध कूप महि पतित बिकराल ॥
नानक काढि लेहु प्रभ दइआल ॥४॥
करतूति पसू की मानस जाति ॥
लोक पचारा करै दिनु राति ॥
बाहरि भेख अंतरि मलु माइआ ॥
छपसि नाहि कछु करै छपाइआ ॥
बाहरि गिआन धिआन इसनान ॥
अंतरि बिआपै लोभु सुआनु ॥
अंतरि अगनि बाहरि तनु सुआह ॥
गलि पाथर कैसे तरै अथाह ॥
जा कै अंतरि बसै प्रभु आपि ॥
नानक ते जन सहजि समाति ॥५॥
सुनि अंधा कैसे मारगु पावै ॥
करु गहि लेहु ओड़ि निबहावै ॥
कहा बुझारति बूझै डोरा ॥
निसि कहीऐ तउ समझै भोरा ॥
कहा बिसनपद गावै गुंग ॥
जतन करै तउ भी सुर भंग ॥
कह पिंगुल परबत पर भवन ॥
नही होत ऊहा उसु गवन ॥
करतार करुणा मै दीनु बेनती करै ॥
नानक तुमरी किरपा तरै ॥६॥
संगि सहाई सु आवै न चीति ॥
जो बैराई ता सिउ प्रीति ॥
बलूआ के ग्रिह भीतरि बसै ॥
अनद केल माइआ रंगि रसै ॥
द्रिड़ु करि मानै मनहि प्रतीति ॥
कालु न आवै मूड़े चीति ॥
बैर बिरोध काम क्रोध मोह ॥
झूठ बिकार महा लोभ ध्रोह ॥
इआहू जुगति बिहाने कई जनम ॥
नानक राखि लेहु आपन करि करम ॥७॥
तू ठाकुरु तुम पहि अरदासि ॥
जीउ पिंडु सभु तेरी रासि ॥
तुम मात पिता हम बारिक तेरे ॥
तुमरी क्रिपा महि सूख घनेरे ॥
कोइ न जानै तुमरा अंतु ॥
ऊचे ते ऊचा भगवंत ॥
सगल समग्री तुमरै सूत्रि धारी ॥
तुम ते होइ सु आगिआकारी ॥
तुमरी गति मिति तुम ही जानी ॥
नानक दास सदा कुरबानी ॥८॥४॥
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(५)
सलोकु ॥
देनहारु प्रभ छोडि कै लागहि आन सुआइ ॥
नानक कहू न सीझई बिनु नावै पति जाइ ॥१॥
असटपदी ॥
दस बसतू ले पाछै पावै ॥
एक बसतु कारनि बिखोटि गवावै ॥
एक भी न देइ दस भी हिरि लेइ ॥
तउ मूड़ा कहु कहा करेइ ॥
जिसु ठाकुर सिउ नाही चारा ॥
ता कउ कीजै सद नमसकारा ॥
जा कै मनि लागा प्रभु मीठा ॥
सरब सूख ताहू मनि वूठा ॥
जिसु जन अपना हुकमु मनाइआ ॥
सरब थोक नानक तिनि पाइआ ॥१॥
अगनत साहु अपनी दे रासि ॥
खात पीत बरतै अनद उलासि ॥
अपुनी अमान कछु बहुरि साहु लेइ ॥
अगिआनी मनि रोसु करेइ ॥
अपनी परतीति आप ही खोवै ॥
बहुरि उस का बिस्वासु न होवै ॥
जिस की बसतु तिसु आगै राखै ॥
प्रभ की आगिआ मानै माथै ॥
उस ते चउगुन करै निहालु ॥
नानक साहिबु सदा दइआलु ॥२॥
अनिक भाति माइआ के हेत ॥
सरपर होवत जानु अनेत ॥
बिरख की छाइआ सिउ रंगु लावै ॥
ओह बिनसै उहु मनि पछुतावै ॥
जो दीसै सो चालनहारु ॥
लपटि रहिओ तह अंध अंधारु ॥
बटाऊ सिउ जो लावै नेह ॥
ता कउ हाथि न आवै केह ॥
मन हरि के नाम की प्रीति सुखदाई ॥
करि किरपा नानक आपि लए लाई ॥३॥
मिथिआ तनु धनु कुट्मबु सबाइआ ॥
मिथिआ हउमै ममता माइआ ॥
मिथिआ राज जोबन धन माल ॥
मिथिआ काम क्रोध बिकराल ॥
मिथिआ रथ हसती अस्व बसत्रा ॥
मिथिआ रंग संगि माइआ पेखि हसता ॥
मिथिआ ध्रोह मोह अभिमानु ॥
मिथिआ आपस ऊपरि करत गुमानु ॥
असथिरु भगति साध की सरन ॥
नानक जपि जपि जीवै हरि के चरन ॥४॥
मिथिआ स्रवन पर निंदा सुनहि ॥
मिथिआ हसत पर दरब कउ हिरहि ॥
मिथिआ नेत्र पेखत पर त्रिअ रूपाद ॥
मिथिआ रसना भोजन अन स्वाद ॥
मिथिआ चरन पर बिकार कउ धावहि ॥
मिथिआ मन पर लोभ लुभावहि ॥
मिथिआ तन नही परउपकारा ॥
मिथिआ बासु लेत बिकारा ॥
बिनु बूझे मिथिआ सभ भए ॥
सफल देह नानक हरि हरि नाम लए ॥५॥
बिरथी साकत की आरजा ॥
साच बिना कह होवत सूचा ॥
बिरथा नाम बिना तनु अंध ॥
मुखि आवत ता कै दुरगंध ॥
बिनु सिमरन दिनु रैनि ब्रिथा बिहाइ ॥
मेघ बिना जिउ खेती जाइ ॥
गोबिद भजन बिनु ब्रिथे सभ काम ॥
जिउ किरपन के निरारथ दाम ॥
धंनि धंनि ते जन जिह घटि बसिओ हरि नाउ ॥
नानक ता कै बलि बलि जाउ ॥६॥
रहत अवर कछु अवर कमावत ॥
मनि नही प्रीति मुखहु गंढ लावत ॥
जाननहार प्रभू परबीन ॥
बाहरि भेख न काहू भीन ॥
अवर उपदेसै आपि न करै ॥
आवत जावत जनमै मरै ॥
जिस कै अंतरि बसै निरंकारु ॥
तिस की सीख तरै संसारु ॥
जो तुम भाने तिन प्रभु जाता ॥
नानक उन जन चरन पराता ॥७॥
करउ बेनती पारब्रहमु सभु जानै ॥
अपना कीआ आपहि मानै ॥
आपहि आप आपि करत निबेरा ॥
किसै दूरि जनावत किसै बुझावत नेरा ॥
उपाव सिआनप सगल ते रहत ॥
सभु कछु जानै आतम की रहत ॥
जिसु भावै तिसु लए लड़ि लाइ ॥
थान थनंतरि रहिआ समाइ ॥
सो सेवकु जिसु किरपा करी ॥
निमख निमख जपि नानक हरी ॥८॥५॥
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(६)
सलोकु ॥
काम क्रोध अरु लोभ मोह बिनसि जाइ अहमेव ॥
नानक प्रभ सरणागती करि प्रसादु गुरदेव ॥१॥
असटपदी ॥
जिह प्रसादि छतीह अम्रित खाहि ॥
तिसु ठाकुर कउ रखु मन माहि ॥
जिह प्रसादि सुगंधत तनि लावहि ॥
तिस कउ सिमरत परम गति पावहि ॥
जिह प्रसादि बसहि सुख मंदरि ॥
तिसहि धिआइ सदा मन अंदरि ॥
जिह प्रसादि ग्रिह संगि सुख बसना ॥
आठ पहर सिमरहु तिसु रसना ॥
जिह प्रसादि रंग रस भोग ॥
नानक सदा धिआईऐ धिआवन जोग ॥१॥
जिह प्रसादि पाट पट्मबर हढावहि ॥
तिसहि तिआगि कत अवर लुभावहि ॥
जिह प्रसादि सुखि सेज सोईजै ॥
मन आठ पहर ता का जसु गावीजै ॥
जिह प्रसादि तुझु सभु कोऊ मानै ॥
मुखि ता को जसु रसन बखानै ॥
जिह प्रसादि तेरो रहता धरमु ॥
मन सदा धिआइ केवल पारब्रहमु ॥
प्रभ जी जपत दरगह मानु पावहि ॥
नानक पति सेती घरि जावहि ॥२॥
जिह प्रसादि आरोग कंचन देही ॥
लिव लावहु तिसु राम सनेही ॥
जिह प्रसादि तेरा ओला रहत ॥
मन सुखु पावहि हरि हरि जसु कहत ॥
जिह प्रसादि तेरे सगल छिद्र ढाके ॥
मन सरनी परु ठाकुर प्रभ ता कै ॥
जिह प्रसादि तुझु को न पहूचै ॥
मन सासि सासि सिमरहु प्रभ ऊचे ॥
जिह प्रसादि पाई द्रुलभ देह ॥
नानक ता की भगति करेह ॥३॥
जिह प्रसादि आभूखन पहिरीजै ॥
मन तिसु सिमरत किउ आलसु कीजै ॥
जिह प्रसादि अस्व हसति असवारी ॥
मन तिसु प्रभ कउ कबहू न बिसारी ॥
जिह प्रसादि बाग मिलख धना ॥
राखु परोइ प्रभु अपुने मना ॥
जिनि तेरी मन बनत बनाई ॥
ऊठत बैठत सद तिसहि धिआई ॥
तिसहि धिआइ जो एक अलखै ॥
ईहा ऊहा नानक तेरी रखै ॥४॥
जिह प्रसादि करहि पुंन बहु दान ॥
मन आठ पहर करि तिस का धिआन ॥
जिह प्रसादि तू आचार बिउहारी ॥
तिसु प्रभ कउ सासि सासि चितारी ॥
जिह प्रसादि तेरा सुंदर रूपु ॥
सो प्रभु सिमरहु सदा अनूपु ॥
जिह प्रसादि तेरी नीकी जाति ॥
सो प्रभु सिमरि सदा दिन राति ॥
जिह प्रसादि तेरी पति रहै ॥
गुर प्रसादि नानक जसु कहै ॥५॥
जिह प्रसादि सुनहि करन नाद ॥
जिह प्रसादि पेखहि बिसमाद ॥
जिह प्रसादि बोलहि अम्रित रसना ॥
जिह प्रसादि सुखि सहजे बसना ॥
जिह प्रसादि हसत कर चलहि ॥
जिह प्रसादि स्मपूरन फलहि ॥
जिह प्रसादि परम गति पावहि ॥
जिह प्रसादि सुखि सहजि समावहि ॥
ऐसा प्रभु तिआगि अवर कत लागहु ॥
गुर प्रसादि नानक मनि जागहु ॥६॥
जिह प्रसादि तूं प्रगटु संसारि ॥
तिसु प्रभ कउ मूलि न मनहु बिसारि ॥
जिह प्रसादि तेरा परतापु ॥
रे मन मूड़ तू ता कउ जापु ॥
जिह प्रसादि तेरे कारज पूरे ॥
तिसहि जानु मन सदा हजूरे ॥
जिह प्रसादि तूं पावहि साचु ॥
रे मन मेरे तूं ता सिउ राचु ॥
जिह प्रसादि सभ की गति होइ ॥
नानक जापु जपै जपु सोइ ॥७॥
आपि जपाए जपै सो नाउ ॥
आपि गावाए सु हरि गुन गाउ ॥
प्रभ किरपा ते होइ प्रगासु ॥
प्रभू दइआ ते कमल बिगासु ॥
प्रभ सुप्रसंन बसै मनि सोइ ॥
प्रभ दइआ ते मति ऊतम होइ ॥
सरब निधान प्रभ तेरी मइआ ॥
आपहु कछू न किनहू लइआ ॥
जितु जितु लावहु तितु लगहि हरि नाथ ॥
नानक इन कै कछू न हाथ ॥८॥६॥
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